Sunday, February 8, 2009

अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ???

पहला तर्क , “ ब्रिटिश राज ने हमारे अंदर भारतीय होने की भावना भरी । हम सब का एक ही पासपोर्ट था वह था इंडियन । “

बिल्कुल सहमत हूँ आपसे । हम पर उन्होंने इतने अत्याचार किये कि कशमीर से कन्याकुमारी तक किसी में कोई अंतर नही किया । और इन्ही अत्याचारों ने हमें भारतीय के रुप में संगठित हो कर अंग्रेज़ों के खिलाफ संर्घष करने के लिये प्रेरित किया । अगर आप अंग्रेज़ों के अत्याचारों को भारतीय होने की भावना से जोड़ते है तो आप सही है । पासपोर्ट ,यह मज़ाक लगता है वह एक आम भारतीय को ट्रेन के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में तो बैठने नही देते थे ,जहाज़ में बैठने देते । हाँ अगर अंग्रेज़परस्तों को एक ही पासपोर्ट देने की बात है तो ठीक है ।

दूसरा तर्क , “ अंग्रेज़ों ने हमारे लिये टैलीग्राफ बनाया ,हमारे शहरों को सड़कों ,रेलों से जोड़ा ,बिजली पैदा करने के लिये नहरों और बाधों का जाल बिछाया । उन्होंने उद्योग और धंधों की शुरुआत की । “

उन्होंने भारतीयों के लिये कुछ नही किया जो किया अपनी हकुमत का प्रसार करने और भारतीयों का दमन करने के लिये किया । शहरों को सड़कों ,रेलों से जोड़ा ताकि वह भारत के दूर-दराज़ के इलाकों में अपनी सेना भेज अपना नियंत्रण कायम कर सके ताकि भारत के किसी भी हिस्से से अंग्रेज़ों का विरोध ना हो सकें । अब यह ऐसी चीज़े तो थी नही कि अंग्रेज़ जाते समय इसे छोटे टुकड़ो में काट कर किसी झोले या अटैची में डाल अपने साथ ले जाते ,ले जा सकते तो कोहिनूर हीरे की तरह इसे भी ज़रुर ले जाते । हमारे उद्योग-धंधे तो उन्होंने बर्बाद कर दिये । उन के आने से पहले देश सोने की चिड़िया कहलाता था ,अंग्रेज़ों ने इसे लूट-लूट कर दरिद्र और पिछड़ा बना दिया । शिक्षा का केन्द्र रहा भारत उसकी संस्कृति जैसी महान और वैज्ञानिक भाषा को भारतीयों के ही मन में तुच्छ और हीन भाषा बना ( और आज तरह-तरह के शोध कर हमें बताते है कि कम्पयूटर के लिये सब से सही और वैज्ञानिक भाषा यही है । ) अंग्रेज़ी हम पर लाद दी । खुद तो चले गये पर उनकी भाषा में पले मानसिकता वाले लोगों को हम आज भी ढो रहे है ,जो समाज के हर क्षेत्र में है जिन्हें हिन्दी में बात करने वाले लोग अनपढ़ और गंवार लगते है ।

तीसरा तर्क , “ उन्होंने नगर पालिका ,राज्य और केन्द्रीय विधान्सभाओं जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं स्थापित की । “

आम भारतीय की इस में क्या भूमिका थी ? आप समाचार-पत्रों और रेडियों की बारे में बताना भूल गये । इसकी शुरुआत भी उन्ही के शासनकाल में हुई थी ,पर सिर्फ अंग्रेज़ों के लिये । आम भारतीय को इस का प्रयोग कर अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त नही थी , विशेष कर क्रान्तिकारियों को और ऐसा करने पर उन्हें सख्त सज़ा होती थी । और उन पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाये जाते ।

चौथा तर्क , “ अंग्रेज़ी शासन के दौरन कानून की इज्ज़त ज़्यादा थी । दंगे-फसाद व घेराव कम होते थे । सड़क और रेल यातायात को जाम करना बसों और रेलगाड़ियों को जलाना ,कारों की तोड़-फोड़ जैसी घटनाएं बहुत कम सुनाई देती थी ,भ्र्ष्टाचार कम था शायद ही कोई अंग्रेज़ अफसर रिश्वत लेता हो । मेरी पीढ़ी के किसी भी भारतीय से पूछ लीजिये वह इस बात की ताकीद करेगा कि आज के भारत की बजाये अंग्रेज़ों के वक्त में जान-माल ज़्यादा सुरक्षित था । “

पूरा तर्क मज़ाक तो लगा पर एक शर्मनाक और पीड़ादायक । क्या एक आम भारतीय में अग्रेज़ी कानून का अपमान तो दूर ,अवेहलना करने की भी हिम्मत थी ? अंग्रेज़ अफसर रिश्वत लेता ,पर किससे ? उन भारतीयों से जिन्हें वे पहले ही लूट-खसोट कर खा रहे थे । रिश्वत तो तब लेते जब व भारतीयों के पास कुछ छोड़ते या कोई भारतीय अंग्रेज़ अफसर को रिश्वत देने से इंकार करता इंकार करता तो मार-मार कर छमड़ी ना उधेड़ देते उसकी ,क्योंकि जानते थे कि एक आम भारतीय की एक अंग्रेज़ अफसर के खिलाफ कही सुनवाई नही होगी । दंगे-फसाद व घेराव कम होते थे ,एक भारतीय के दिल में अंग्रेज़ों ने अपने ज़ुल्म-सितम से इतना खौफ पैदा कर दिया था कि एक आम भारतीय अपने खून-पसीने से उगाये अनाज को बेबसी से अंग्रेज़ों के चुंगल में जाते देखता रहता पर अंग्रेज़ो के ज़ुल्म और पिटाई के डर से विरोध नही कर पाते थे वे क्या दंगे-फसाद ,सड़क और रेल यातायात को जाम करना बसों और रेलगाड़ियों को जलाना ,कारों की तोड़-फोड़ करने जैसा दु:साहस करते और जब घेराव कर अपनी बात कहने की जुर्रत करते तो लाला लाजपत राय जैसा कोई क्रन्तिकारी शहीद होता या फिर जलियाँवाले बाग जैसा काण्ड होता ।अंग्रेज़ों के वक्त में जान-माल ज़्यादा सुरक्षित था ,पर किसका । अंग्रेज़ों का या उन्के तलवे चाटने वाले चम्म्चों का । क्योंकि जहाँ तक जान की बात है तो आम भारतीय तो उन्की नज़र में इंसान ही नही थे , होटलों तथा अन्य जगहों पर टंगे ‘ dogs and - - - are not allowed ‘ के बोर्ड इस बात की पुष्ति करते है ,ऐसे में वो कितने सुरक्षित होगें इसे समझने मे ज़्यादा मुश्किल नही होनी चाहिये । और रही बात माल की , तो जब जान ही सुरक्षित नही तो माल की सुरक्षा का सोचना शायद मूर्खता ही मानी जायेगीं । और फिर अंग्रेज़ों ने किसी आम भारतीय के पास इतना माल छोड़ा ही कहाँ होगा जहाँ वह उन्का विरोध भी करें और सम्मापूर्वक भी रहें । और सबसे बड़ी बात लूटपाट कौन करता ? सबसे बड़े लुटेरे तो अंग्रेज़ खुद थे ।

पाँचवा तर्क , “ अनेक अंग्रेज़ों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया । अंग्रेज़ इज्ज़त के साथ देश से गये उन्हें दूसरे यूरोपियन जैसे कि फ्रैंच ,डच , और पुर्त्गालियों की तरह ज़बरदस्ती धकेल कर बाहर नही निकाला गया । यही कारण है कि बहुत से भारतीयों के लिये अंग्रेज़ी राज एक यादगार की तरह है । अंत में बहुत से अंग्रेज़ी स्त्री-पुरुष थे जो भारतीयों को अपना दोस्त बनाने में काफी आगे तक गये । मै उन में से कुछ को जानने वाला भाग्याशाली था और यह मैने महसूस किया कि इस रिकार्ड को ठीक करना चाहिये । मुझे इस दृष्टिकोण से अंग्रेज़ परस्थोने में कोई शर्म नही है । “

लिस्ट बना लीजीये अगर सौ अंग्रेज़ों ने भी खुल कर अपनी सरकार के ज़ुल्मों का सार्वजनिक तौर पर विरोध कर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया हो । व्यक्तिगत दोस्ती या बात्चीत को इस में शामिल ना करें । अंग्रेज़ इज्ज़त के साथ गये ,बेइज़्ज़ती का अर्थ आप ने समझा ही दिया है । चले गये ,अगर थोड़ी देर और रहते तो ज़रुर जूते मार कर ही निकाले जाते । अगर आप यह सोचते है कि एक संधि पर हस्ताक्षार कर अंग्रेज़ तीन सौ साल के राज को खुशी-खुशी छोड़ कर चले गये तो इससे एक बच्चा भी इत्तेफाक नही करेगा । सच तो यह है कि वह इस मानसिकता के साथ यह देश छोड़ कर गये थे कि अनपढ़ और साँप-सपेरों का देश जो अपने लिये अनाज तक बाहर से मँगवाता है ,विविधताओं से भरा जिसमें कई धर्म ,जातीयाँ और वर्ग है ,एक देश के रुप में कभी एक नही रह सकता । देश से जाते समय अंग्रेज़ों ने अपमान का जो घूँट पीया वह उन्हें आज भी रह-रह कर दर्द देता है जब भारत कोई उपलब्धि हासिल करता है । उन से यह बर्दाश्त नही होता कि एक मुल्क जो 61 साल पहले उन के अधीन था आज 61 साल बाद विकास की नयी- नयी ऊचाँईयाँ छू रहा है वह सब हासिल कर रहा है जो हमने उन्ही के देश से कभी छीन कर अपने मुल्क की तरक्की की थी । अपने बराबर भारतीयों को खड़ा पा उन्हें तकलीफ होती है । विश्व पर धौंस जमाने के लिये खुद हथियारों का जमावड़ा करते है ,परमाणु परीक्षण करते है ,पर भारत को निशस्त्रीकरण पर भाषण देते है ,भारत की सुरक्षा ज़रुरतों के बावजूद भारत के परमाणु परीक्षण करने पर हाय-तौबा मचाते है । अपने देश में हुये आंतकवादी हमले का बदला लेने के लिये बिना सबूतों के दूसरे मुल्क पर हमला कर देते है और भारत पर आंतकी हमला होने पर भी उसे संयम बरतने को कहते है । सच तो यह है कि अंग्रेज़ों ने भारत को लूट कर खुद को विकसित किया और आज भी उनके विकास में भारतीय डाक्टर ,वैज्ञानिक ,इंजीनियर का ही योगदान है । खुशवंत जी अंग्रेज़ इतने बुरे नही थे तो आप बताये आज़ादी पाने के लिये क्यों हमारे पूर्वजों ने इतना संर्घष किया ,क्यों हमारे युवा क्रान्तिकारी हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये । 61 साल बाद भी किसी भी दृष्टिकोण से आप को अंग्रेज़ परस्त होने में शर्म ना आती हो और आप के लिये अंग्रेज़ी राज एक यादगार की तरह होगा ।पर हम जब भी अंग्रेज़ी राज कू याद करेगें तो जलियाँवाला बाग लाला जी पर बरसती लाठियाँ ,फाँसी के फंदे पर झूलते युवा क्रान्तिकारी और भूखे-नंगे पेट और शरीर पर लाठियाँ खाते आम भारतीय ही याद आयेगें । हम हमेशा आभारी रहेगे अपने पूर्वजों के जिन्होंने हमे आज़ादी दिलायी । यहाँ हम अपनी मर्ज़ी से अपनी सरकार चुनते है ,स्वतंत्रता से अपनी बात कहते है । ईश्वर ना करे विश्व के किसी भी देश को किसी भी रुप में किसी दूसरे देश की गुलामी करनी पड़े ।

5 comments:

Maharaj said...

are you realy ritu priya mahajan. i am in BBSR and my No. is
blog likhna kab start kiya

shivraj gujar said...

bahut hi uttam visleshan.
desh bhakti jagane ka man ko chhoo lene wala prayas. badhai.

Anonymous said...

हाँ, बिल्कुल सही! दो हज़ार साल भारत पर अँगरेज़ ही तो ज़ुल्म ढाते रहे! वरना हम तो हमेशा से एक थे और बहुत ही संगठित व ताक़तवर थे कोई दिल्ली लूटता रहा और कोई पड़ोसी राजा उस फारसी आक्रमणकारी को सहायता देता रहा, हमने जजिया का भी काफी विरोध किया, मन्दिर तोड़ने वाले मज़हबी बादशाहों के मुंह पर हमने भले ही थूका पर उनकी चाकरी नहीं बजाई. किसी मुसलमान को अपना सर्वेसर्वा स्वीकार नहीं किया.
अगर भारतीय संस्कृति पर हमें गर्व है और उसे अपनी 'विरासत' मानते हैं तो पराजय से भरे इतिहास को भी अपना ही मानो. ११०० सालों के इतिहास में मुसलमानों ने अंग्रेजों का (भले ही निहित स्वार्थों के लिए) एक प्रतिशत भी किया है? पर चूँकि अँगरेज़ पूरी तरह देश छोड़ चुके हैं तो उनके खिलाफ हम बोल सकते हैं, पर हमारे देश में करोड़ों मुसलमान बाकी हैं तो उनके आदर्श पूर्वजों के खिलाफ बोलने की दम हममे है नहीं. अभी दंगे भड़क जायेंगे.

अंग्रेजों ने बहुत कुछ अपने ही स्वार्थ के लिए किया. पर इस प्रक्रिया में हमें भी काफी कुछ मिल गया, वह अलग बात है की हम उसे संभाल न सके.

हमारी २००० सालों की गुलामी में अंग्रेजो का हिस्सा सिर्फ़ २०० वर्ष का है, बाकी किसका है यह बोलना भी में अपराध है. कहा जाता है की अँगरेज़ बंटवारे के लिए जिम्मेदार थे, पर जिन्होंने सातवी सदी से अट्ठारहवी सदी तकभारत में आधी आबादी को मुसलमान बना कर बंटवारे की प्राकृतिक स्थितियां तैयार की उसे कोई नहीं श्रेय देता, भई, सारा श्रेय अँगरेज़ ही क्यों बटोरें? कुछ हिस्सा दूसरो का भी तो है.

हमारे घर की छत सालों टपक रही हो तो बारिश बादल मौसम और देवताओं को दोष देने से बेहतर है की छत की मरम्मत करा ली जाए, वरना पानी तो जहाँ कमज़ोर दीवार पाएगा वहीं से चूएगा.

या यूँ कहें,

की कांटे को दोष देने से बेहतर है की हम जूते पहन लें.

sanjay vyas said...

सही विश्लेषण है. भारत छोड़ने के पीछे भारतीयों का अपना संघर्ष और तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ दोनों का योगदान था पर किसी भी तारक अँगरेज़ भारत या भारतीयों के प्रति संवेदनशील नहीं थे.

ritu mahajan said...

लेख पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये सब का बहुत-बहुत शुक्रिया । महाराज जी मैं ऋतु महाजन हूँ ,ऋतु प्रिया महाजन नही । आप ने ब्लाग लिखना कब शुरु किया ,अगर यह आप का मुझ से सवाल है तो इस का जवाब है ,अक्तूबर 2008 ।
ab inconvenienti ने अपने विचार व्यक्त किये ,वह अपनी विचार प्रकट करने के लिये स्वतंत्र है ,पर मै अपनी और से उन्हें बता दूँ कि लेख अंग्रेज़ी राज की तारीफ में है ,ना कि अंग्रेज़ों ने हमें बंदी इसलिये बनाया कि हम आपस में लड़ते रहें । अतीत में हमने काफी गलतियाँ की आप ने अतीत और वर्तमान को एक साथ मिला दिया है ,जबकि अतीत की गलतियों से हमें सीखने की ज़रुरत है । रही बात मुसलमानों के खिलाफ बोलने कि तो इस बहस में सामजिक और राजनीति कारक शामिल है । और आज जो नेता तुष्टिलरण की नीति अपना रहे है क्या वह सिर्फ मुसलमान है । अमर सिंह ,अर्जुन सिंह ,पासवान ,लालू क्या है । और रही दंगों की बात तो कभी भाषा के नाम पर तो कभी अपनी क्षेत्रवाद की राज्नीति चमकाने के लिये नेता क्या करते है यह सबने देखा है । लेकिन इस का अर्थ यह नही कि हम व्यवस्था को सुधारने की बजाये निराश हो कर अंग्रेज़ी राज की तारीफ शुरु कर दे । अगर आज़ादी के 61 वर्ष बाद भी अंग्रेज़ी राज को बुरा नही मानते तो फिर हमें कोई हक नही भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान दिवस मनाने का । इस का एक अर्थ यह भी है कि हम क्योंकि आज़ाद देश में पैदा हुये है इसलिये गुलामी के दर्द को हममें से कई समझने में असफल रहे है । सब अपनी सोच के लिये स्वतंत्र है ,पर मेरे लिये खुशवंत जी का लेख बहद पीड़ादयक था और उस पर टिप्पणी करना मैने अपना फर्ज़ समझा ।