Sunday, February 8, 2009

व्हाइट डौग इन व्हाइट हाऊस

आजकल हर जगह ‘स्लम्डाग मिलेनियर ’ की चर्चा है । कोई इस के विरोध में बोल रहा है तो कोई समर्थन में । कई समर्थक लेखकों के लेख पढ़ कर यूँ लगा जैसे वे मानते है कि भारत को अंग्रेज़ों से अच्छी तरह तो कोई जान ही नही सका । किसी को लगता है कि हम भारतीयों की सच्चाई की ही तो प्रस्तुति की है एक विदेशी । समझ में नही आता कि विदेशी अपने बारे में सच्चाई क्यों नही दिखाते । किसी अंग्रेज़ ने ईसराईल के हमले से घायल फिल्स्तिनीयों पर फिल्म क्यों नही बनाई । अमेरीका ने जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद वहाँ क्या तबाही मचाई उस पर फिल्म क्यों नही बनाई । ईराक और अफगानिस्तान पर ज़ुल्म की फिल्म बना कर उसे आस्कर दे । आज की तारीख में विदेशों मेंरह रहे अन्य देशों के लोगों विशेष कर भारतीय सिखों और मुसलमानों तथा पाक मुसलमानों के साथ कया सलूक किया जा रहा ज़रा उसे भी तो फिल्म बना कर दिखायें ।अमेरीकन सेना ने ईराक में कितने अमानवीय अत्याचार किये है उस पर फिल्म क्यों नही बनाते । गाँधी जी पर फिल्म बना दी ,भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों पर कैसे-कैसे ज़ुल्म किये ब्रिटिश सरकार ने,जलियाँवाले बाग में कैसे निर्दोष लोगों को गोलियॊ से भून डाला जनरल डायर ने उन पर फिल्म बनाये ना । कोलम्बिया हादसे पर फिल्म बनाये । तानाशाहों को तो अय्याश कहते है पर दुनिया को अपने राष्ट्र्पति के बारे में भी तो बताये जिसने बेशर्मी की नई दास्तां लिखी । पूरी दुनिया देखेगी । बिल क्लिंटन-मोनिका लिवेंस्की पर फिल्म बनाये और नाम रखें , ‘ व्हाइट डौग इन व्हाइट हाऊस ’ फिर देखे कितने अंग्रेज़ खुश हो कर इसे देखते है और कितनी आस्कर श्रेणियों के लिये यह नामंकित होती है । पर दोष अंग्रेज़ों का भी नही हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी हो चली है कि जब भी पश्चिम का विरोध होता है अंग्रेज़ी मानसिकता में पले लोगों को देश के शिक्षित और सभ्य लोग भी दकियानूसी विचारों वाले लगने लगते है । इसी लिये इसके समर्थन में लेख पढ़ते-पढ़ते मुझे यह लेख याद आ गया । यह लेख ‘ अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ’ खुशवंत सिंह जी का लिखा है ,जो हिन्दी दैनिक पंजाब केसरी के 15 नवम्बर 2008 के सम्पादकीय में प्रकाशित हो चुका है । मैंने समाचार-पत्र के माध्यम से उन्हें इस लेख के विरोध में एक पत्र भेजा था जिस का जवाब आज तक नही आया । लेख पढ़ मुझे बहुत पीड़ा हुई यह सोच कर कि भारत की आज़ादी के 61 साल बाद भी आज भी ऐसे लोग है जो अंग्रेज़ी राज को बर्बर कहना तो दूर उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ते है और स्वंय को अंग्रेज़परस्त कहने में शर्म महसूस नही करते । खुशवंत सिंह जी ने अपने लेख ‘ अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ’ में अंग्रेज़ों तथा अंग्रेज़ी राज की जम कर तारीफ की है । उनका मानना है कि हमारे इतिहासकारों ने अंग्रेज़ी राज की नकारात्मक तस्वीर चित्रित की है और भारत निर्माण में उनके ‘सकारात्मक ’ योगदान का कोई श्रेय नही दिया ,इसके लिये उन्होंनें ने कई तर्क दिये है । खुशवंत जी ने लेख में लिखा है कि उन्होंने आज से लगभग तीस साल पहले एक किताब लिखी थी ,‘ साहिब हू लव्ड इंडिया ’ पर इसे कोई तारीफ नही मिली ,उन्हें इस का पुन: प्रकाशन कराना चाहिये आस्कर या नोबल पक्का मिलेगा । दीपा मेहता ,मीरा नायर नायपाल , शेखर कपूर और अब स्लम्डाग मिलेनियर गवाह है इस बात के कि उन रचनाओं को पश्चिम में खूब सराहा जाता है जो भारत की बुरी ,बेहूदा ,नकारात्मक औछी और अश्लील्ता ( उनकी भाषा में सेक्स ) की चाशनी में डुबो कर तस्वीर पेश करें , उसका नोबल और आस्कर तो पक्का है ।

पंजाब केसरी के कई पाठकों ने उस लेख को पढ़ा होगा ,जिन्होंने नही पढ़ा उनके लिये मैं लेख में दिये तर्क दे रही हूँ । यह लेख उनके लेख तथा मेरे जवाबों को मिला कर मैंने तैयार किया है । उनके तर्क जस के तस दे रही हूँ । अपने जवाबों में मैंने कुछ और टिप्पणियों को शामिल किया है जो उस वक्त खत के लंबा होने के बारे में सोच कर नही दे पाई थी । भाग दो ‘ अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ’ में पढ़े इस लेख को ।

3 comments:

अनिल कान्त said...

आपके लेख को पढ़कर अच्छा लगा .....सही अख है आपने ...


अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Anonymous said...

जिस हिंद पर हमें नाज़ है वह कहीं नहीं दीखता, न गाँव न शहर न कस्बों में, किस हिंद पर नाज़ करें? कहाँ है वह हिंद? हमें तो नहीं दीखता?

सिर्फ़ लगभग १२-१५ करोड़ लोग ही मध्य आय या उच्च वर्ग से है बाकि निम्न मध्य या गरीबी रेखा से नीचे. ८५ करोड़ तो २० रूपए से कम में गुज़ारा करते हैं. शर्मनाक! ६१% (?) साक्षरता है (प्रश्नचिन्ह इसीलिए की यह सरकारी आंकडा है). न बिजली न पानी न सड़क न रोज़गार, गरीबी, अपराध और मज़बूरी-अन्याय


जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?

राज भाटिय़ा said...

पर दोष अंग्रेज़ों का भी नही हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी हो चली है कि जब भी पश्चिम का विरोध होता है अंग्रेज़ी मानसिकता में पले लोगों को देश के शिक्षित और सभ्य लोग भी दकियानूसी विचारों वाले लगने लगते है ।

जी आप ने बिलकुल सही लिखा, पहले भी ऎसे ही लोगो की वजह से शायद देश गुलाम हुआ होगा, ओर अब भी अगर हम तबाह होते है तो इन्ही वेबकुफ़ो की वजह से. लेकिन यह बेचारे भी क्या करे गुलाम की ओलादे भी गुलाम हॊ होती है, यह सब जींस का चक्कर है.
राम राम जी की