Tuesday, February 17, 2009

खबरें और मेरी कलम की चुटकी

सर्दी फिर बढ़ गयी है ऐसे में चुटकी मारने से बेहतर तो कोई काम दिख नही रहा ,लीजिये मैंने चुटकी मारी है आप भी मज़ा लीजिये ।

अमर सिंह मंच से गिरे - एक समाचार ।

चरित्र से तो पहले ही गिरे थे अब मंच पर से भी गिरने लगे ।

शाहरुख बहुत बोलते है - आमिर खान ।

बहुत बोलना तो अभी सीखा है एक फिल्म में तो बेचारे पूरी फिल्म में क-क-क-किरण ही कह पाये थे ।

राहुल गाँधी और ब्रिटेन के विदेश मंत्री मिलीबैण्ड ने झोंपड़ी में रात गुज़ारी – एक समाचार ।

राहुल बाबा को तो आदत हो गई है पर बेचारे मिलीबैण्ड का तो मुफ्त में बैड़ बजवा दिया ।

बेरोज़गार हो रहे अमेरीकी युवकों को ओबामा से बहुत उम्मीदें –एक समाचार ।

अरे भाई , ओबामा पहले अपनी बेटियों के लिये कुत्ता तो ढूँढ ले फिर युवकों के लिये नौकरी भी ढूँढ देंगें ।

शाहरुख को देखने की तमन्ना के बाद सीमा पार कर सलमान को देखने पहुँचा एक अन्य किशोर जावेद -एक समाचार ।

आमिर सोच रहे होगें मेरा नंबर कब आयेगा ? घबराईये नही मिस्टर परफैक्शनिस्ट इस के बाद आप ही का नंबर आयेगा ।

आस्कर पुरस्कार की घोषणा के समय शौचालय में था – देव पटेल ।

उम्मीद है शाहरुख और सलमान ने यह समाचार पढ़ लिया होगा ,और अगली बार इस बात को ध्यान में रखेंगें ।

अलगावादी नेता यासीन मलिक पाक कलाकार से शादी करेगा – एक समाचार ।

यह तो बेमल जोड़ी बन गयी अब कौन अपना प्रोफशन बदलेगा ।

राहुल के बाद सोनिया ने दलित के घर रोटी खाई – एक समाचार ।

पास्ता खाया क्या ?

अलकायदा से डरने की ज़रुरत नही – गृहमंत्री चिदम्बरम ।

जनाब आप को डरने की क्या ज़रुरत ,आप को तो ज़ैड प्लस सिक्योरिटि के घेरे में है , डरने की ज़रुरत तो आम आदमी को है ,मरता तो आखिर में वो ही है ।

हमारी सेना हर खतरे से निपटने में सक्षम है - रक्षा मंत्री ए.के.एंटोनी

सेना हर खतरे से निपटने में सक्षम है और नेता हर मुद्दे को सुलझाने में अक्षम ।

Sunday, February 8, 2009

अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ???

पहला तर्क , “ ब्रिटिश राज ने हमारे अंदर भारतीय होने की भावना भरी । हम सब का एक ही पासपोर्ट था वह था इंडियन । “

बिल्कुल सहमत हूँ आपसे । हम पर उन्होंने इतने अत्याचार किये कि कशमीर से कन्याकुमारी तक किसी में कोई अंतर नही किया । और इन्ही अत्याचारों ने हमें भारतीय के रुप में संगठित हो कर अंग्रेज़ों के खिलाफ संर्घष करने के लिये प्रेरित किया । अगर आप अंग्रेज़ों के अत्याचारों को भारतीय होने की भावना से जोड़ते है तो आप सही है । पासपोर्ट ,यह मज़ाक लगता है वह एक आम भारतीय को ट्रेन के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में तो बैठने नही देते थे ,जहाज़ में बैठने देते । हाँ अगर अंग्रेज़परस्तों को एक ही पासपोर्ट देने की बात है तो ठीक है ।

दूसरा तर्क , “ अंग्रेज़ों ने हमारे लिये टैलीग्राफ बनाया ,हमारे शहरों को सड़कों ,रेलों से जोड़ा ,बिजली पैदा करने के लिये नहरों और बाधों का जाल बिछाया । उन्होंने उद्योग और धंधों की शुरुआत की । “

उन्होंने भारतीयों के लिये कुछ नही किया जो किया अपनी हकुमत का प्रसार करने और भारतीयों का दमन करने के लिये किया । शहरों को सड़कों ,रेलों से जोड़ा ताकि वह भारत के दूर-दराज़ के इलाकों में अपनी सेना भेज अपना नियंत्रण कायम कर सके ताकि भारत के किसी भी हिस्से से अंग्रेज़ों का विरोध ना हो सकें । अब यह ऐसी चीज़े तो थी नही कि अंग्रेज़ जाते समय इसे छोटे टुकड़ो में काट कर किसी झोले या अटैची में डाल अपने साथ ले जाते ,ले जा सकते तो कोहिनूर हीरे की तरह इसे भी ज़रुर ले जाते । हमारे उद्योग-धंधे तो उन्होंने बर्बाद कर दिये । उन के आने से पहले देश सोने की चिड़िया कहलाता था ,अंग्रेज़ों ने इसे लूट-लूट कर दरिद्र और पिछड़ा बना दिया । शिक्षा का केन्द्र रहा भारत उसकी संस्कृति जैसी महान और वैज्ञानिक भाषा को भारतीयों के ही मन में तुच्छ और हीन भाषा बना ( और आज तरह-तरह के शोध कर हमें बताते है कि कम्पयूटर के लिये सब से सही और वैज्ञानिक भाषा यही है । ) अंग्रेज़ी हम पर लाद दी । खुद तो चले गये पर उनकी भाषा में पले मानसिकता वाले लोगों को हम आज भी ढो रहे है ,जो समाज के हर क्षेत्र में है जिन्हें हिन्दी में बात करने वाले लोग अनपढ़ और गंवार लगते है ।

तीसरा तर्क , “ उन्होंने नगर पालिका ,राज्य और केन्द्रीय विधान्सभाओं जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं स्थापित की । “

आम भारतीय की इस में क्या भूमिका थी ? आप समाचार-पत्रों और रेडियों की बारे में बताना भूल गये । इसकी शुरुआत भी उन्ही के शासनकाल में हुई थी ,पर सिर्फ अंग्रेज़ों के लिये । आम भारतीय को इस का प्रयोग कर अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त नही थी , विशेष कर क्रान्तिकारियों को और ऐसा करने पर उन्हें सख्त सज़ा होती थी । और उन पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाये जाते ।

चौथा तर्क , “ अंग्रेज़ी शासन के दौरन कानून की इज्ज़त ज़्यादा थी । दंगे-फसाद व घेराव कम होते थे । सड़क और रेल यातायात को जाम करना बसों और रेलगाड़ियों को जलाना ,कारों की तोड़-फोड़ जैसी घटनाएं बहुत कम सुनाई देती थी ,भ्र्ष्टाचार कम था शायद ही कोई अंग्रेज़ अफसर रिश्वत लेता हो । मेरी पीढ़ी के किसी भी भारतीय से पूछ लीजिये वह इस बात की ताकीद करेगा कि आज के भारत की बजाये अंग्रेज़ों के वक्त में जान-माल ज़्यादा सुरक्षित था । “

पूरा तर्क मज़ाक तो लगा पर एक शर्मनाक और पीड़ादायक । क्या एक आम भारतीय में अग्रेज़ी कानून का अपमान तो दूर ,अवेहलना करने की भी हिम्मत थी ? अंग्रेज़ अफसर रिश्वत लेता ,पर किससे ? उन भारतीयों से जिन्हें वे पहले ही लूट-खसोट कर खा रहे थे । रिश्वत तो तब लेते जब व भारतीयों के पास कुछ छोड़ते या कोई भारतीय अंग्रेज़ अफसर को रिश्वत देने से इंकार करता इंकार करता तो मार-मार कर छमड़ी ना उधेड़ देते उसकी ,क्योंकि जानते थे कि एक आम भारतीय की एक अंग्रेज़ अफसर के खिलाफ कही सुनवाई नही होगी । दंगे-फसाद व घेराव कम होते थे ,एक भारतीय के दिल में अंग्रेज़ों ने अपने ज़ुल्म-सितम से इतना खौफ पैदा कर दिया था कि एक आम भारतीय अपने खून-पसीने से उगाये अनाज को बेबसी से अंग्रेज़ों के चुंगल में जाते देखता रहता पर अंग्रेज़ो के ज़ुल्म और पिटाई के डर से विरोध नही कर पाते थे वे क्या दंगे-फसाद ,सड़क और रेल यातायात को जाम करना बसों और रेलगाड़ियों को जलाना ,कारों की तोड़-फोड़ करने जैसा दु:साहस करते और जब घेराव कर अपनी बात कहने की जुर्रत करते तो लाला लाजपत राय जैसा कोई क्रन्तिकारी शहीद होता या फिर जलियाँवाले बाग जैसा काण्ड होता ।अंग्रेज़ों के वक्त में जान-माल ज़्यादा सुरक्षित था ,पर किसका । अंग्रेज़ों का या उन्के तलवे चाटने वाले चम्म्चों का । क्योंकि जहाँ तक जान की बात है तो आम भारतीय तो उन्की नज़र में इंसान ही नही थे , होटलों तथा अन्य जगहों पर टंगे ‘ dogs and - - - are not allowed ‘ के बोर्ड इस बात की पुष्ति करते है ,ऐसे में वो कितने सुरक्षित होगें इसे समझने मे ज़्यादा मुश्किल नही होनी चाहिये । और रही बात माल की , तो जब जान ही सुरक्षित नही तो माल की सुरक्षा का सोचना शायद मूर्खता ही मानी जायेगीं । और फिर अंग्रेज़ों ने किसी आम भारतीय के पास इतना माल छोड़ा ही कहाँ होगा जहाँ वह उन्का विरोध भी करें और सम्मापूर्वक भी रहें । और सबसे बड़ी बात लूटपाट कौन करता ? सबसे बड़े लुटेरे तो अंग्रेज़ खुद थे ।

पाँचवा तर्क , “ अनेक अंग्रेज़ों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया । अंग्रेज़ इज्ज़त के साथ देश से गये उन्हें दूसरे यूरोपियन जैसे कि फ्रैंच ,डच , और पुर्त्गालियों की तरह ज़बरदस्ती धकेल कर बाहर नही निकाला गया । यही कारण है कि बहुत से भारतीयों के लिये अंग्रेज़ी राज एक यादगार की तरह है । अंत में बहुत से अंग्रेज़ी स्त्री-पुरुष थे जो भारतीयों को अपना दोस्त बनाने में काफी आगे तक गये । मै उन में से कुछ को जानने वाला भाग्याशाली था और यह मैने महसूस किया कि इस रिकार्ड को ठीक करना चाहिये । मुझे इस दृष्टिकोण से अंग्रेज़ परस्थोने में कोई शर्म नही है । “

लिस्ट बना लीजीये अगर सौ अंग्रेज़ों ने भी खुल कर अपनी सरकार के ज़ुल्मों का सार्वजनिक तौर पर विरोध कर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन किया हो । व्यक्तिगत दोस्ती या बात्चीत को इस में शामिल ना करें । अंग्रेज़ इज्ज़त के साथ गये ,बेइज़्ज़ती का अर्थ आप ने समझा ही दिया है । चले गये ,अगर थोड़ी देर और रहते तो ज़रुर जूते मार कर ही निकाले जाते । अगर आप यह सोचते है कि एक संधि पर हस्ताक्षार कर अंग्रेज़ तीन सौ साल के राज को खुशी-खुशी छोड़ कर चले गये तो इससे एक बच्चा भी इत्तेफाक नही करेगा । सच तो यह है कि वह इस मानसिकता के साथ यह देश छोड़ कर गये थे कि अनपढ़ और साँप-सपेरों का देश जो अपने लिये अनाज तक बाहर से मँगवाता है ,विविधताओं से भरा जिसमें कई धर्म ,जातीयाँ और वर्ग है ,एक देश के रुप में कभी एक नही रह सकता । देश से जाते समय अंग्रेज़ों ने अपमान का जो घूँट पीया वह उन्हें आज भी रह-रह कर दर्द देता है जब भारत कोई उपलब्धि हासिल करता है । उन से यह बर्दाश्त नही होता कि एक मुल्क जो 61 साल पहले उन के अधीन था आज 61 साल बाद विकास की नयी- नयी ऊचाँईयाँ छू रहा है वह सब हासिल कर रहा है जो हमने उन्ही के देश से कभी छीन कर अपने मुल्क की तरक्की की थी । अपने बराबर भारतीयों को खड़ा पा उन्हें तकलीफ होती है । विश्व पर धौंस जमाने के लिये खुद हथियारों का जमावड़ा करते है ,परमाणु परीक्षण करते है ,पर भारत को निशस्त्रीकरण पर भाषण देते है ,भारत की सुरक्षा ज़रुरतों के बावजूद भारत के परमाणु परीक्षण करने पर हाय-तौबा मचाते है । अपने देश में हुये आंतकवादी हमले का बदला लेने के लिये बिना सबूतों के दूसरे मुल्क पर हमला कर देते है और भारत पर आंतकी हमला होने पर भी उसे संयम बरतने को कहते है । सच तो यह है कि अंग्रेज़ों ने भारत को लूट कर खुद को विकसित किया और आज भी उनके विकास में भारतीय डाक्टर ,वैज्ञानिक ,इंजीनियर का ही योगदान है । खुशवंत जी अंग्रेज़ इतने बुरे नही थे तो आप बताये आज़ादी पाने के लिये क्यों हमारे पूर्वजों ने इतना संर्घष किया ,क्यों हमारे युवा क्रान्तिकारी हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये । 61 साल बाद भी किसी भी दृष्टिकोण से आप को अंग्रेज़ परस्त होने में शर्म ना आती हो और आप के लिये अंग्रेज़ी राज एक यादगार की तरह होगा ।पर हम जब भी अंग्रेज़ी राज कू याद करेगें तो जलियाँवाला बाग लाला जी पर बरसती लाठियाँ ,फाँसी के फंदे पर झूलते युवा क्रान्तिकारी और भूखे-नंगे पेट और शरीर पर लाठियाँ खाते आम भारतीय ही याद आयेगें । हम हमेशा आभारी रहेगे अपने पूर्वजों के जिन्होंने हमे आज़ादी दिलायी । यहाँ हम अपनी मर्ज़ी से अपनी सरकार चुनते है ,स्वतंत्रता से अपनी बात कहते है । ईश्वर ना करे विश्व के किसी भी देश को किसी भी रुप में किसी दूसरे देश की गुलामी करनी पड़े ।

व्हाइट डौग इन व्हाइट हाऊस

आजकल हर जगह ‘स्लम्डाग मिलेनियर ’ की चर्चा है । कोई इस के विरोध में बोल रहा है तो कोई समर्थन में । कई समर्थक लेखकों के लेख पढ़ कर यूँ लगा जैसे वे मानते है कि भारत को अंग्रेज़ों से अच्छी तरह तो कोई जान ही नही सका । किसी को लगता है कि हम भारतीयों की सच्चाई की ही तो प्रस्तुति की है एक विदेशी । समझ में नही आता कि विदेशी अपने बारे में सच्चाई क्यों नही दिखाते । किसी अंग्रेज़ ने ईसराईल के हमले से घायल फिल्स्तिनीयों पर फिल्म क्यों नही बनाई । अमेरीका ने जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद वहाँ क्या तबाही मचाई उस पर फिल्म क्यों नही बनाई । ईराक और अफगानिस्तान पर ज़ुल्म की फिल्म बना कर उसे आस्कर दे । आज की तारीख में विदेशों मेंरह रहे अन्य देशों के लोगों विशेष कर भारतीय सिखों और मुसलमानों तथा पाक मुसलमानों के साथ कया सलूक किया जा रहा ज़रा उसे भी तो फिल्म बना कर दिखायें ।अमेरीकन सेना ने ईराक में कितने अमानवीय अत्याचार किये है उस पर फिल्म क्यों नही बनाते । गाँधी जी पर फिल्म बना दी ,भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों पर कैसे-कैसे ज़ुल्म किये ब्रिटिश सरकार ने,जलियाँवाले बाग में कैसे निर्दोष लोगों को गोलियॊ से भून डाला जनरल डायर ने उन पर फिल्म बनाये ना । कोलम्बिया हादसे पर फिल्म बनाये । तानाशाहों को तो अय्याश कहते है पर दुनिया को अपने राष्ट्र्पति के बारे में भी तो बताये जिसने बेशर्मी की नई दास्तां लिखी । पूरी दुनिया देखेगी । बिल क्लिंटन-मोनिका लिवेंस्की पर फिल्म बनाये और नाम रखें , ‘ व्हाइट डौग इन व्हाइट हाऊस ’ फिर देखे कितने अंग्रेज़ खुश हो कर इसे देखते है और कितनी आस्कर श्रेणियों के लिये यह नामंकित होती है । पर दोष अंग्रेज़ों का भी नही हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी हो चली है कि जब भी पश्चिम का विरोध होता है अंग्रेज़ी मानसिकता में पले लोगों को देश के शिक्षित और सभ्य लोग भी दकियानूसी विचारों वाले लगने लगते है । इसी लिये इसके समर्थन में लेख पढ़ते-पढ़ते मुझे यह लेख याद आ गया । यह लेख ‘ अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ’ खुशवंत सिंह जी का लिखा है ,जो हिन्दी दैनिक पंजाब केसरी के 15 नवम्बर 2008 के सम्पादकीय में प्रकाशित हो चुका है । मैंने समाचार-पत्र के माध्यम से उन्हें इस लेख के विरोध में एक पत्र भेजा था जिस का जवाब आज तक नही आया । लेख पढ़ मुझे बहुत पीड़ा हुई यह सोच कर कि भारत की आज़ादी के 61 साल बाद भी आज भी ऐसे लोग है जो अंग्रेज़ी राज को बर्बर कहना तो दूर उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ते है और स्वंय को अंग्रेज़परस्त कहने में शर्म महसूस नही करते । खुशवंत सिंह जी ने अपने लेख ‘ अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ’ में अंग्रेज़ों तथा अंग्रेज़ी राज की जम कर तारीफ की है । उनका मानना है कि हमारे इतिहासकारों ने अंग्रेज़ी राज की नकारात्मक तस्वीर चित्रित की है और भारत निर्माण में उनके ‘सकारात्मक ’ योगदान का कोई श्रेय नही दिया ,इसके लिये उन्होंनें ने कई तर्क दिये है । खुशवंत जी ने लेख में लिखा है कि उन्होंने आज से लगभग तीस साल पहले एक किताब लिखी थी ,‘ साहिब हू लव्ड इंडिया ’ पर इसे कोई तारीफ नही मिली ,उन्हें इस का पुन: प्रकाशन कराना चाहिये आस्कर या नोबल पक्का मिलेगा । दीपा मेहता ,मीरा नायर नायपाल , शेखर कपूर और अब स्लम्डाग मिलेनियर गवाह है इस बात के कि उन रचनाओं को पश्चिम में खूब सराहा जाता है जो भारत की बुरी ,बेहूदा ,नकारात्मक औछी और अश्लील्ता ( उनकी भाषा में सेक्स ) की चाशनी में डुबो कर तस्वीर पेश करें , उसका नोबल और आस्कर तो पक्का है ।

पंजाब केसरी के कई पाठकों ने उस लेख को पढ़ा होगा ,जिन्होंने नही पढ़ा उनके लिये मैं लेख में दिये तर्क दे रही हूँ । यह लेख उनके लेख तथा मेरे जवाबों को मिला कर मैंने तैयार किया है । उनके तर्क जस के तस दे रही हूँ । अपने जवाबों में मैंने कुछ और टिप्पणियों को शामिल किया है जो उस वक्त खत के लंबा होने के बारे में सोच कर नही दे पाई थी । भाग दो ‘ अंग्रेज़ इतने बुरे भी नही थे ’ में पढ़े इस लेख को ।